सर्वोपरि है कर्म की महत्ता

प्रेरणा | Motivation: यह सच है कि मनुष्य परमात्मा के द्वारा सृजित इस सुंदर सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, पर सत्य यह भी है कि उसकी श्रेष्ठता प्रकट तभी होती है, जब वह श्रेष्ठ कर्म करता है, जब वह अच्छे कर्म करता है। एक ओर अपने सांसारिक कर्मों से वह भौतिक प्रगति के सर्वोच्च सोपान को पा सकता है तो वहीं दूसरी ओर अपने आध्यात्मिक कर्मों से वह अपनी चेतना के सर्वोच्च शिखर को छूकर आध्यात्मिकता के शिखर तक पहुँचकर अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य, चरम लक्ष्य, परम लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है। इसे प्राप्त कर वह सचमुच शाश्वत सुख व परम आनंद की प्राप्ति कर सकता है। वह भौतिक व आध्यात्मिक दोनों सुखों की प्राप्ति कर सकता है। अस्तु यह स्पष्ट है कि भौतिकता की चरम उपलब्धि करनी हो या आध्यात्मिकता की परम उपलब्धि कर परम आनंद की प्राप्ति करनी हो-दोनों के मूल में कर्म ही है। इसलिए कर्म ही जीवन का सार है।
मनुष्य की मृत्यु के बाद उसका कर्म ही शेष रह जाता है। वह जीवनपर्यंत अपने अच्छे-बुरे कर्मों के कारण ही जाना जाता है और सुख-दुःख प्राप्त करता है और मरने के बाद भी अपने जीवन में किए गए कर्मों के आधार पर ही नूतन जीवन पाता है या परमगति को प्राप्त होता है। अब तक मानवीय सभ्यता का जो विकास हो सकता है, वह मनुष्य के द्वारा किए गए कार्यों का ही परिणाम है। आज दुनिया में शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, अंतरिक्ष, विज्ञान, सूचना, संचार, तकनीक आदि के क्षेत्र में जो क्रांति, प्रगति दिखाई पड़ रही है, वह मनुष्य के द्वारा किए गए कार्यों, आविष्कारों व प्रयासों का ही परिणाम है।कर्मशील बनकर ही मनुष्य ने चंद्रमा तथा मंगल ग्रह तक अपनी पहुँच बनाई है।
इस संसार में शिक्षा, चिकित्सा, अंतरिक्ष, उद्योग, खेल, व्यवसाय, फिल्म, राजनीति, साहित्य, विज्ञान, अध्यात्म आदि विभिन्न क्षेत्रों में जिन लोगों ने भी सफलता पाई है या सफलता के सर्वोच्च शिखर को छुआ है-उसे उन्होंने अपने कार्यों के बल पर ही किया है।जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल या असफल होना हमारे कर्मों के ऊपर ही निर्भर करता है। कर्म से ही व्यक्ति के जीवन की दिशा व दशा तय होती है। कर्म ही व्यक्ति के उत्थान और पतन का कारण है। सत्प्रयास, सत्कार्य, सत्कर्म करने से मनुष्य का उत्थान होता है तो वहीं गलत कर्म, बुरे कर्म करने से मनुष्य का पतन होता है।कर्मशील व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है तो वहीं कर्महीन, अकर्मण्य व निष्क्रिय व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी सुलभ नहीं है। कर्मशील व्यक्ति का जीवन सुख, समृद्धि, धन, ऐश्वर्य, यश व आनंद से भर जाता है तो वहीं कर्महीन, अकर्मण्य, आलसी, प्रमादी व निष्क्रिय व्यक्ति का जीवन दुःख, दारिद्रय, कष्ट, क्लेश व अभावों से भर जाता है।यदि हम जीवन में भौतिक या आध्यात्मिक उत्थान चाहते हैं तो हमें कर्मशील रहना ही होगा।
यदि हम जीवन में सुख, समृद्धि, सफलता, शांति व आनंद पाना चाहते हैं तो हमें सदैव कर्मशील होना चाहिए। कर्मशीलता का दूसरा नाम ही जीवन है और अकर्मण्यता व निष्क्रियता का दूसरा नाम ही मृत्यु है। अकर्मण्य व्यक्ति के लिए तो शरीर का निर्वाह कर पाना भी संभव नहीं होता।अस्तु इस जीवन में कर्म की महत्ता सर्वोपरि है, सर्वविदित है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं का उदाहरण देते हुए कहा है कि मेरे लिए कोई कर्म करना शेष नहीं, पर फिर भी मैं कर्म करता हूँ। अतः मनुष्य को भी कर्मशील रहना चाहिए। प्रकृति भी सदैव क्रियाशील होकर हमें क्रियाशील होने की प्रेरणा दे रही है। पृथ्वी गतिशील है, सरिताएँ सदैव प्रवाहमान हैं। समुद्र में लहरें उठती ही रहती हैं, सूर्य जगत् को प्रकाशित करने में संलग्न है, गगनमंडल में चंद्रमा भी प्रकाशित है, तारे-सितारे भी टूटते-बिखरते रहते हैं।।अतः हमें भी सदैव गतिशील होना चाहिए, क्रियाशील होना चाहिए, कर्मशील होना चाहिए। जीवन में गति नहीं तो फिर जीवन कैसा ? जीवन में गतिशीलता नहीं तो जीवन कैसा? फिर तो जीवन बोझ है, भार है, बेकार है, नीरस है, निरर्थक है।
ऐसा जीवन भी क्या कोई जीवन है? ऐसा जीवन तो पशु-पक्षी भी नहीं जीते। फिर हम मनुष्य होकर, श्रेष्ठ प्राणी होकर भी भला ऐसा जीवन क्यों जिएँ ? हमें ईश्वर ने ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय, मन, बुद्धि व चेतना प्रदान की है, ताकि हम सदैव कर्मशील रहें, सत्कर्मों में रत रहें।कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से निकला है। ‘कृ’ का अर्थ है करना। हमारे द्वारा जो कुछ भी किया जाता है, वही कर्म है। हम शारीरिक और मानसिक रूप से जो कुछ भी करते हैं, वह सब कर्म ही है। जीवन में कर्म अर्थात कार्य करने का अर्थ है सच्ची लगन, निष्ठा, मेहनत व ईमानदारी से अपने दायित्वों व कर्त्तव्यों को पूर्ण करना।जब हम किसी कार्य को आधे-अधूरे मन से या किसी कार्य को भार या बोझ समझकर अनियमित रूप से करते हैं तो उस कार्य में हमें पूर्ण सफलता नहीं मिलती, पर जब हम किसी कार्य को पूर्ण। एकाग्रता, ईमानदारी व नियमित रूप से आनंदपूर्वक करते हैं तो उस कार्य में हमारी संपूर्ण ऊर्जा का समावेश होता है, जिससे हमें उस कार्य में सफलता मिलती है।इस संसार के इतिहास में जो लोग भी सफल हुए हैं, वे इसी कारण सफल हुए हैं और जो असफल हुए हैं वे आधे-अधूरे मन से किए गए कार्यों के कारण ही असफल हुए हैं।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने कितना सटीक कहा है कि ‘असफलता का अर्थ ही है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं हुआ।’कर्मशील होने का अर्थ यह भी नहीं कि हम बुरे कर्मों में रत रहें। कर्मशील होने का अर्थ अच्छे कर्मों में, सत्कार्यों में लगे रहना है। यह संसार, यह जीवन कर्मप्रधान है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्मों का परिणाम सदैव अच्छा होता है और बुरे कर्मों का परिणाम सदैव बुरा ही होता है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है-करम प्रधान बिश्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥सकल पदारथ हैं जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं ॥अर्थात यह विश्व, यह जगत् कर्मप्रधान है। जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस संसार में सभी प्रकार के पदार्थ व वस्तुएँ सुलभ हैं।
इस संसार में किसी पदार्थ की कोई कमी नहीं है, पर कर्महीन मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता; क्योंकि इस संसार में कुछ पाने के लिए पहले उद्यमरूपी कर्म करना पड़ेगा, तभी कुछ प्राप्त हो सकता है।एक प्रसिद्ध कहावत है- ‘जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे।’ अर्थात मनुष्य जो बीज बोता है, उसे उसी बीज का फल प्राप्त होता है। एक किसान जब अपने खेत में गेहूँ का बीज बोता है तो उसके खेत में गेहूँ की फसल ही होती है, मक्के की नहीं। जब वह अपने खेत में बबूल का बीज बोता है तो उसके खेत में बबूल ही उगता है आम नहीं। जैसा कि कहा गया है- “बोया बीज बबूल का आम कहाँ से होय।”उसी प्रकार मनुष्य के द्वारा किया गया हर कार्य ही, हर कर्म ही बीज है। मनुष्य का जीवन ही खेत है। मनुष्य अपने जीवनरूपी खेत में जैसा बीज बोता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। यदि हम अपने जीवनरूपी खेत में अच्छे कर्मों का बीज बोते हैं तो हमें अच्छे फल प्राप्त होते हैं और यदि बुरे कर्मों का बीज बोते हैं तो हमें बुरे फल ही प्राप्त होते हैं।किसी को दुःख, कष्ट या हानि पहुँचाने के लिए किया गया कर्म बुरा कर्म कहलाता है। झूठ, हिंसा, असत्य, बेईमानी व अनैतिक तरीके से किया गया कर्म बुरा कर्म कहलाता है। वहीं सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता पर आधारित कर्म अच्छा कर्म कहलाता है।
किसी की सेवा, सहायता, दान, परोपकार, सहयोग, मदद करना अच्छा कर्म कहलाता है। अच्छे कर्म से ही हमें सुख-शांति व सफलता मिलती है। वहीं बुरे कर्म करने पर हमें दुःख प्राप्त होता है।भौतिक प्रगति के लिए हमें भौतिक कार्यों में सच्चा प्रयास करना चाहिए और उसी प्रकार आध्यात्मिक उत्थान के लिए भी हमें निरंतर तदनुरूप योग साधनों में सच्चे मन से लगे रहना चाहिए, कर्मशील रहना चाहिए। यही कर्म का सिद्धांत है। यही कर्म-रहस्य है।विज्ञान भी इस सिद्धांत को मानता है। न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार हर क्रिया के प्रति विपरीत दिशा में समान प्रतिक्रिया होती है। जैसे जब हम किसी दीवार पर कोई गेंद जिस गति से फेंकते हैं, तब वह गेंद वापस उतनी ही गति से विपरीत दिशा में लौट आती है। यह निर्विवाद सत्य है कि हम अच्छे-बुरे जो भी कर्म करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया अवश्य होती है और समय आने पर हमें उसका अच्छा या बुरा फल अवश्य ही प्राप्त होता है। अतः हमें हमेशा अच्छे कर्म ही करने चाहिए। हमें सदैव सत्कर्म व सत्प्रयास करना चाहिए।अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्म किससे प्रेरित होकर करता है।
अच्छे कर्म करने के लिए मनुष्य का विचार भी अच्छा होना चाहिए; क्योंकि विचार ही कर्म के रूप में प्रकट होता है। यदि मनुष्य का विचार अच्छा है तो उसका कर्म अच्छा होगा और यदि उसका विचार बुरा है तो उसका कर्म भी बुरा ही होगा। मनुष्य का कर्म उसके विचार से ही प्रेरित होता है।गौतम बुद्ध ने ठीक ही कहा है- “हम आज जो भी हैं, जैसे भी हैं; वह हमारे विचारों का ही परिणाम है। हमारे विचारों से ही हमारे जीवन का निर्माण होता है।” स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है-“आज हम सुख या दुःख, जिस किसी भी स्थिति में हैं, वह अतीत में या पूर्व में हमारे द्वारा किए गए विचारों व विचारों से उत्पन्न कर्मों का ही परिणाम है और हम भविष्य में जैसे भी होंगे, वह भी वर्तमान में हमारे द्वारा किए जा रहे विचारों और उन विचारों से उत्पन्न कर्मों का ही परिणाम होगा।”वहीं अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने कहा है-“विचार ही कर्म के बीज हैं। कोई भी कर्म करने से पहले उस कर्म का विचार मनुष्य के मन में आता है। फिर व्यक्ति उस विचार से प्रेरित होकर ही अच्छे या बुरे कर्म करता है। व्यक्ति जैसा सोचता है, विचारता है, वह वैसा ही करता है और वह वैसा ही बन जाता है।
अस्तु अपने मन को अच्छे व दिव्य विचारों से भर लो जिससे कि तुम अच्छा सोच सको, विचार सको और अच्छे व दिव्य कर्म करते हुए अच्छे व दिव्य मनुष्य बन सको।”मनुष्य की पहचान उसकी पोशाक या धन-वैभव से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से ही होती है, उसके चरित्र से होती है। मनुष्य श्रेष्ठ कर्मों से ही श्रेष्ठ बनता है और सर्वत्र सुख, सम्मान व सफलता प्राप्त करता है। इसलिए मनुष्य को सदैव श्रेष्ठ कर्म, अच्छे कर्म करते रहना चाहिए। श्रेष्ठ कर्म करना ही मानव का धर्म है। जिस तरह श्रद्धा, भक्ति व तन्मयता के साथ भगवान की पूजा की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य को अपना कर्म पूजा की तरह पूर्ण एकाग्रता, तन्मयता व ईमानदारी के साथ करना चाहिए।मनुष्य को कर्म तो करना चाहिए, पर फलप्राप्ति के लिए अधीर या उतावला नहीं होना चाहिए। बगैर फल की चिंता किए अपना कर्त्तव्य कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि फल तो समय आने पर ही प्राप्त होगा। जैसा कि संत कबीर ने कहा है- धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय ।। अर्थात हे मन ! धैर्य धारण कर, धीरे-धीरे सब कुछ हो जाता है। यदि कोई माली पौधे में सौ घड़ा पानी भी डाल दे, तब भी पौधा एक ही दिन में फल नहीं देने लग जाता है। माली धैर्य के साथ अपने कर्त्तव्य का पालन पूरे साल करता रहता है, फिर मौसम आने पर ही पेड़ों में फल लगते हैं।इस संबंध में एक अन्य कवि ने भी क्या खूब कहा है- कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर। समय पाय तरुवर फरै, केतक सींचो नीर ॥ अर्थात हे मनुष्य ! अपने कार्य में लगे रहो, पर उसके फल के लिए कभी अधीर मत होओ; क्योंकि फल तो समय आने पर प्राप्त होगा ही। जिस प्रकार किसी भी पौधे में बहुत सारा पानी देने पर वह पौधा उसी समय बड़ा नहीं हो जाता और फल देने नहीं लगता, वह एक निश्चित समय में बड़ा होकर ही फल देता है-उसी प्रकार समय आने पर ही व्यक्ति को अपने कर्मों का फल प्राप्त होता है। फल या परिणाम की चिंता करने में लाभकुछ भी नहीं, बल्कि हानि-ही-हानि है। अतः यहाँ स्मरणीय यह है कि फल की चिंता करते हुए कर्म करने से मनुष्य की उस कर्म में एकाग्रता कम हो जाती है।मेरी हार होगी या जीत, मुझे फल प्राप्त होंगे भी या नहीं, ऐसी चिंता करते हुए कर्म करने से हम उस कर्म को कुशलतापूर्वक संपन्न नहीं कर पाते।
हम अपनी संपूर्ण ऊर्जा का समावेश उस कर्म में नहीं कर पाते।वहीं यदि कर्म का परिणाम हमारे अनुकूल नहीं मिला तो हम घोर निराशा, अवसाद, तनाव में डूब जाते हैं। हमारा आत्मबल कमजोर होने लगता है। हम मन से हार मानने लगते हैं और फिर से उस कार्य हेतु अपना प्रयास नहीं कर पाते।इस समस्या का समाधान यह है कि हम कर्म करते हुए फल की चिंता न करें; क्योंकि कर्म करना ही हमारे हाथ में है, उस कर्म का फल हमारे हाथ में नहीं है। इसलिए गीताकार ने अर्जुन के माध्यम से संपूर्ण मनुष्य जाति को यह संदेश दिया है-फल की चिंता किए बगैर अपना कर्त्तव्य कर्म करो। कर्म में सफलता मिलेगी या असफलता, मेरी हार होगी या जीत, मेरी आलोचना होगी या प्रशंसा, इसकी चिंता मत करो। सिर्फ अपना कर्म करो।
सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
– गीता 2.38 अर्थात जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध (कर्त्तव्य कर्म) के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से, कर्त्तव्य कर्म करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।वहीं भगवान श्रीकृष्ण गीता-9.27-28 में कहते हैं-यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥* * शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । संन्यास योगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।।
अर्थात हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान करता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर। इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान को अर्पण होते हैं-ऐसे संन्यास योग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।अस्तु भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि परिणाम फल की चिंता किए बगैर हम अपना कर्त्तव्य कर्म करते रहें और अपने हर कर्म को चाहे वह भौतिक उपलब्धि को पाने के लिए किए जाने वाले कर्म हों या फिर आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए किए जाने वाले कर्म हों, उन सभी कर्मों को हम ईश्वर को अर्पित करते चलें, उनके फल व परिणाम को अर्पित करते चलें।ऐसा करने से हमारे हर कर्म ही अकर्म होते जाएँगे; हमारे हर कर्म निष्काम होते जाएँगे एवं हमारे कर्म संस्काररहित होते जाएँगे, जिससे हमारे किसी भी कर्म से कर्मसंस्काररूपी बंधन विनिर्मित नहीं हो सकेंगे।हम अपने हर कर्म को स्वयं के लिए नहीं, वरन ईश्वर के लिए किया जा रहा कर्म मानकर स्वयं को अकर्ता मानकर, स्वयं को भगवान के हाथों का एक यंत्र, उपकरण मात्र मानकर कर्म करते जाएँगे।
ज्ञान के बाद और दूसरे लोक में जाना नहीं पड़ता, पुनर्जन्म नहीं होता। परंतु जब तक ज्ञान नहीं होता, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संसार में लौटकर आना पड़ता है। उबला हुआ धान बोने से फिर पौधा नहीं होता। ज्ञानरूपी अग्नि से यदि कोई उबाला हुआ हो, तो उसे लेकर और सृष्टि का खेल नहीं होता।
तब हमारे द्वारा इस प्रकार किए जा रहे हर कर्म स्वतः ही ईश्वर को अर्पित होते जाएँगे।हमारे हर कर्म ही पूजा के पुष्प, फल, जल, अक्षत की तरह भगवान को अर्पित होते रहेंगे। हम अपने हर कर्म से ही भगवान की पूजा कर रहे होंगे। तब कर्तव्य कर्म करते हुए मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय, आलोचना-प्रशंसा की हमें चिंता नहीं होगी। कर्म का अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम भी हमें प्रभावित नहीं कर सकेगा। इस प्रकार किए गए कर्म को ही कर्मयोग कहते हैं। ऐसे कर्म से हमें भौतिक व आध्यात्मिक, दोनों उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। कर्म करके कर्मफल की आकांक्षा न करना, चिंता न करना, किसी मनुष्य की सहायता करके उससे किसी प्रकार की कृतज्ञता की आशा न करना, कोई सत्कर्म करके भी इस बात की ओर दृष्टि न करना कि वह हमें यश और कीर्ति देगा या नहीं-हमें सफलता मिलेगी भी या नहीं। यही निष्काम कर्म है और निष्काम कर्म ही कर्मयोग है। स्वामी विवेकानंद ने बहुत ही सुंदर कहा है कि कर्त्तव्य कर्म करते हुए, स्वदेश अथवा स्वधर्म के लिए युद्ध करते समय मनुष्य की मृत्यु भी हो जाए तो योगीजन जिस परम पद को ध्यान के द्वारा प्राप्त करते हैं, वही पद उस मनुष्य को उसके उस कर्म से प्राप्त हो जाता है।अस्तु हमें धैर्यपूर्वक अपना कर्त्तव्य कर्म करते रहना चाहिए। साथ ही हमें उपनिषद् का यह संदेश भी सदैव स्मरण रखना चाहिए कि उठो, जागो और तब तक संघर्ष करो, जब तक मंजिल न मिल जाए
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