प्रकृतिगत जीवन का रहस्य
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के 39वें श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं -कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥इस श्लोक में 'ज्ञेयम्' अर्जुन की मुख्य चिंता है।

प्रेरणा | Motivation: वे सही कदम उठाने में असमर्थ क्यों हैं, जबकि वे जानते हैं कि वास्तविकता क्या है या इससे भी ज्यादा कि सही क्या है ? अर्जुन उस लोभ के बढ़ते प्रभाव के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं, जिसने उनके स्वजनों को इतना अंधा बना दिया है कि वे अनुचित भी नहीं देख सकते। यह तथ्य पुनः अर्जुन की निश्छल दृष्टि प्रस्तुत करता है।इस श्लोक का स्वर इस बात का द्योतक है कि वह वास्तविक विनाश को उतना महत्त्व नहीं देता, जितना उस दोष को जो विनाश से उत्पन्न होगा, परंतु अपनी दृष्टि की निश्छलता और पवित्रता के बावजूद, अर्जुन वध करने के इस पाप से उस सत्य मार्ग को पहचानने में विफल हो जाते हैं, जो उसकी प्रतीक्षा में है।वे भगवान से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करने की ओर उन्मुख होते हैं।
जीवन में ऐसे क्षणों में व्यक्ति ईश्वर के चरणों में गिरता है। ऐसे क्षण, जब वह देखना चाहता है, किंतु देख नहीं पाता; जब वह कर्म करना चाहता है, किंतु कर्म करने में असमर्थ रहता है।’जब हम प्रकृति की यंत्र-रचना का अनुसंधान करते हैं तो हमारे सामने यह तथ्य स्पष्ट होता है कि विश्व-ब्रह्मांड की प्रत्येक रचना प्रत्येक दूसरी रचना के साथ प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध है। प्रत्येक वस्तु अनवरत दूसरी चीज से प्रभावित हो रही है। सागर की कोई भी लहर अपने में स्वतंत्र नहीं है। निश्चित रूप से उसकी अपनी पृथक सत्ता है। प्रत्येक लहर का अपना मार्ग है, जिसका वह अनुकरण करती है, किंतु यह मार्ग प्रत्येक दूसरी लहर के मार्ग पर निर्भर है।किसी भी व्यक्ति का जीवन इस विश्व ब्रह्मांडीय जीवन के सागर की एक लहर है। इस सागर की प्रत्येक लहर दूसरी लहर के मार्ग को प्रभावित करती है।
निश्चित रूप से मनुष्य अपने भाग्य का स्वामी है।वह ईश्वर के सबसे बड़े उपहार – स्वतंत्र इच्छा का धनी है। इस इच्छा के कारण उसे कोई कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है, किंतु इस कर्म का परिणाम भी उसे भुगतना पड़ता है। प्रतिक्रिया सदैव क्रिया के बराबर होती है।जब लोग सही आचरण करते हैं, तब स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार का वातावरण भी उत्पन्न होता है और जब ऐसे प्रभाव की प्रधानता हो जाती है तो व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ भी इससे प्रभावित होती हैं। यदि पवित्रता और दिव्यता के वातावरण में कोई व्यक्ति उचित मार्ग का अनुकरण करता है तो आस-पास का अदृश्य सात्त्विक प्रभाव उसकी रक्षा करता है।इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने प्रयास में विफल होता है तो उसकी विफलता के पीछे कार्य करने वालों की अदृश्य प्रकृति भी हो सकती है किसी प्रकार की बौद्धिक विवेचना उसकी विफलता * का रहस्योद्घाटन नहीं कर सकती। उसे तब दूसरे • स्तर पर उठना और यह स्वीकार करना पड़ता है • कि उसके पीछे प्रकृति का कार्य और शक्ति • काम करते हैं। उसे प्रकृति के नियमों और उन सबमें अंतर्निहित सृष्टि के संविधान को समझना पड़ता है।जीवन जब प्रकृति में होता है तो हमें प्रकृतिगत जीवन जीना पड़ता है। इसमें परिस्थिति और प्रारब्ध का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। हमें सतत सत्कर्म करते रहना चाहिए। परिणाम तो प्रकृति अंततः प्रदान कर ही देती है। इस प्रकार का जीवन ही व्यक्ति को शांति, तृप्ति, संतोष और उत्कृष्टता प्रदान करता है।
YouTube channel Search – www.youtube.com/@mindfresh112 , www.youtube.com/@Mindfreshshort1
नए खबरों के लिए बने रहे सटीकता न्यूज के साथ।