सम्राट अशोक मृत्युशय्या पर

प्रेरणा | Motivation: सम्राट अशोक मृत्युशय्या पर थे। अपनी समस्त संपदा दान देने के बाद भी उनके मन में एक असंतोष का भाव बना हुआ था। भगवान बुद्ध के आह्वान पर उन्होंने करोड़ों मुद्राएँ दान देने का संकल्प लिया था, परंतु संकल्प पूर्ण होने से पूर्व ही वे रुग्ण होकर क्षुब्ध रहने लगे। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करें, जिससे अंतर्मन में तृप्ति और संतोष का भाव आ सके। राजकोश का धन भी धीरे-धीरे क्षीण हो रहा था। संकल्प पूर्ति हेतु सम्राट अशोक ने निजी वस्तुएँ भी दान देनी प्रारंभ कर दीं।एक दिन उनके पास संघ से एक भिक्षु आया। उस दिन सम्राट अशोक के पास दान देने हेतु कोई निज की वस्तु भी न थी।
क्षुब्ध हृदय से उन्होंने पास रखा आँवला उठाया और उसे भिक्षु को दे दिया और उससे बोले – “बंधु ! अब मेरे पास दान देने को ज्यादा कुछ शेष नहीं है। राजकोश पर सम्राट होने के नाते जितना मेरा अधिकार था, उसका उपयोग करते हुए दान दे चुका हूँ। इसी फल को स्वीकार करें।” भिक्षु ने आँवले का चूर्ण बनाकर प्रसाद में मिलाया और वह प्रसाद संघ के समस्त भिक्षुओं को बँट गया। हजारों भिक्षुओं की तृप्ति का समाचार सम्राट अशोक को मिला। उसे सुनकर उनके अंतर्मन में तृप्ति का वह भाव जागा, जो उन्हें सहस्त्रों स्वर्णमुद्राएँ दान देकर भी नहीं प्राप्त हुआ था। उन्हें अनुभव हुआ कि दिए गए दान का संतोष उसमें निहित परिस्थितियों के आधार पर मिलता है, न कि उसकी विशालता के आधार पर।
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