प्रचंड तपस्या में एक संत

प्रेरणा | Motivation: एक संत प्रचंड तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या के आलोक से दिग्दिगंत में हलचलें होने लगीं। उनका तप-तेज बढ़ते देख इंद्र घबराए और उनको तपस्या से विरत करने का उपाय सोचने लगे। सोची-समझी युक्ति के तहत देवराज इंद्र एक राजा का वेश बनाकर संत के पास पहुँचे और उन्हें अपने स्वर्ण आभूषण प्रदान करते हुए बोले – “प्रभु! आप निरासक्त पुरुष हैं। मैं शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, आप मेरी यह तुच्छ संपदा अपने समीप रख लें। मैं बाद में सुरक्षित होने पर इन्हें वापस ले जाऊँगा।”संत को इसमें कुछ गलत न लगा, उन्होंने राजा को आभूषण झोंपड़ी के कोने में रख देने को कहा।
प्रारंभ में उनके मन में कोई भाव न उमड़ा, पर धीरे-धीरे उनको यह चिंता सताने लगी कि कहीं उस राजा की धरोहर को कुछ हो न जाए। थोड़ी-सी आसक्ति करुणावश जगी तो वह तृष्णा में बदल गई। उनका ध्यान तपस्या में कम, आभूषणों के रख-रखाव में ज्यादा लगने लगा। कुछ ही काल में उनका मार्ग निरासक्ति से आसक्ति का हो गया। इसीलिए साधकों को कामिनी-कांचन से दूर रहने को कहा गया है; क्योंकि छोटी-सी आसक्ति, कभी भी बड़ी-सी वासना में बदल सकती है।
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