छत्तीसगढ़ राज्य के क्षेत्रीय राजवंश
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छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश निम्न प्रकार हैं
राजर्षितुल्य वंश- राजर्षितुल्य वंश को शूर वंश के नाम से भी जाना जाता है। राजर्षितुल्य वंश के राजाओं की राजधानी आरंग थी। • आरंग से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेख से यह सिद्ध होता है कि राजर्षितुल्य राजा दक्षिण कोसल में शासन करते थे। • इस वंश के शासकों ने गुप्तों की अधीनता स्वीकार की थी। प्राप्त ताम्रपत्र से इस वंश के कुल छह राजाओं के बारे में जानकारी मिलती है। इस वंश के प्रमुख शासक सूर, दयित प्रथम, विभीषण, भीमसेन प्रथम, दयित वर्मन और भीमसेन द्वितीय थे। इस वंश की राजमुद्रा सिंह थी।
नल वंश (5वीं-12वीं शताब्दी) – नल वंश का संस्थापक शिशुक (290-330 ई.) को माना जाता है, लेकिन कुछ विद्वान वराहराज को इसका वास्तविक संस्थापक मानते हैं। • नल वंश की राजधानी कोरापुट (वर्तमान ओडिशा) और प्रसारी (भोपालपटनम) थी। • इस वंश के अस्तित्व के प्रमाण सारगढ़ से मिले हैं। नल वंश का वर्णन वायु पुराण में मिलता है। • शिशुक के बाद ज्ञात शासक व्याघ्रराज (330-370 ई.) था। • व्याघ्रराज के बाद इस वंश के अन्य प्रमुख शासक वराहराज (400-435 ई.), वर्मन (435-465 ई.), अर्थपति भट्टारक (465-480 ई.), स्कंदवर्मन (480-515 ई.), स्तंभराज (515-550 ई.), नंदराज (550-585 ई.), पृथ्वीराज (585-625 ई.), विलनतुग (660-700 ई.), पृथ्वीव्याघ्र (700-740 ई.) और भीमसेन देव (900-955 ई.) हुए। • इस वंश का अंतिम ज्ञात शासक नरेंद्र धबल (935-960 ई.) था। • नल वंश में सोने के सिक्के जारी करने वाले प्रमुख शासक वराहराज, अर्थपति और भवदत्त वर्मन थे। इस वंश के सिक्के अडेंग से मिले हैं। इस वंश के शासक विलासतुंग ने राजिम में राजीव लोचन मंदिर का निर्माण कराया था।
शरभपुरीय वंश (5-6वीं शती ई.)- इस वंश की स्थापना शरभराज ने की थी, जिसका उल्लेख भानुगुप्त के एरण शिलालेख (510 ई.) में मिलता है। शरभ का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नरेन्द्र हुआ। उसके नाम का विवरण कुर्द और पिपरुदुला ताम्रपत्रों में मिलता है। • इस वंश को अमरार्य कुल भी कहा जाता था। • इस वंश की राजधानी शरभपुर (आधुनिक सारंगढ़ या संबलपुर) एवं उपराजधानी श्रीपुर थी। • इस वंश के शासक वैष्णव धर्म को मानते थे। • इस वंश के ताम्रपत्र आरंग और मल्हार से मिले हैं। इन्होंने अपने ताम्रपत्रों पर ‘परमभागवत’ उत्कीर्ण करवाया था। • शरभपुरियों की राजमुद्रा ‘गजलक्ष्मी’ थी, जो ताम्रपत्रों और सिक्कों पर उत्कीर्ण है। इस वंश के अन्य प्रमुख शासकों का विवरण इस प्रकार है उसने गरुड़, शंख और चक्र वाले सोने के सिक्के जारी किए और निडिला नदी के किनारे प्रसन्नपुर (मल्हार) शहर की स्थापना की। • जयराज प्रसन्नमात्रा का पुत्र था और उसने दुर्ग शहर की स्थापना की (मल्हार ताम्रपत्र के अनुसार)। उसके द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर गजलक्ष्मी अंकित थी। प्रवरराज ने सिरपुर को नई राजधानी बनाया। • प्रवरराज द्वितीय इस वंश का अंतिम ज्ञात शासक था। इसके बाद यह वंश समाप्त हो गया और पांडु वंश ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
श्रीपुर का पाण्डु वंश या सोमवंश- इन्द्रबल ने शरभपुरीय वंश के शासन का अंत करके दक्षिण कोसल में पाण्डु वंश की स्थापना की। दक्षिण कोसल में इस राजवंश को सोमवंश भी कहा जाता था। सोमवंश के प्रसिद्ध शासक निम्न प्रकार के थे। इंद्रबल यह उदयन का पुत्र था। स्टेरॉयड इंद्रपुर (वर्तमान खरौद) नामक नगर बसाया था और अवशेषों पर लक्ष्मणेश्वर मंदिर का निर्माण किया गया था। पूर्व सकल कोसलाधिपति की डिग्री धारण की थी। यह वैष्णव धर्म का था। नन्नराज द्वितीय ने ‘कोशलमंडलाधिपति’ की उपाधि धारण की थी। इसका मूल ताम्रपत्र अभार से प्राप्त हुआ है। • हर्ष गुप्त का विवाह मगध के मौखरी वंश के राजा सूर्यवर्मा की पुत्री वस्ता देवी से हुआ था। हर्ष की मृत्यु की कहानी उसकी रानी वास्ता देवी ने अपनी स्मृति में महाशिवगुप्त बालाजर्न के काल में सिरपुर में विष्णु भगवान के एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था।
ईंटों से निर्मित यह मन्दिर वर्तमान में लक्ष्मण मन्दिर के नाम से जाना जाता है, जो इस क्षेत्र में उत्तर गुप्तकाल की वास्तुकला का श्रेष्ठतम उदाहरण है।• महाशिवगुप्त बालार्जुजन हर्षगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र महाशिवगुप्त उत्तराधिकारी हुआ। बाल्यावस्था में धनुर्विद्या में पारंगत हो जाने के कारण उसे बालार्जुन भी कहा जाता है।• इसके शासनकाल को छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाता है।• इसने परम महेश्वर की उपाधि धारण की तथा सिरपुर को अपनी राजधानी बनाया।• यह शैव धर्म का अनुयायी था, जबकि पाण्डु वंश वैष्णव धर्म के अनुयायी था।• ह्वेनसांग दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान महाशिवगुप्त के शासनकाल में 635-640 ई. के मध्य (सम्भवतः 639 ई. में) श्रीपुर पहुँचा तथा सिरपुर एवं मल्हार की यात्रा की।• श्रीपुर इस समय में बौद्ध धर्म के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। इस बात का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तान्त सी-यू-की से मिलता है।• ह्वेनसांग ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र को किया-स-लो के नाम से उल्लिखित किया है।
श्रीपुर के पाण्डु वंश की अन्य शाखाएँ- ओडिशा का सोमवंश, कांकेर का सोमवंश तथा मैकल का सोमवंश इसकी अन्य प्रमुख शाखाएँ थीं। इनका विवरण इस प्रकार है: मैकल का सोम या पाण्डु वंशअमरकंटक के आसपास का क्षेत्र मैकल के नाम से जाना जाता था। यहाँ पाण्डुवंशियों की एक शाखा के शासन की जानकारी शरतबल के बहमनी ताम्रपत्र से मिलती है। • इस वंश के प्रमुख शासक जयबल, वत्सबल, नागबल, भरतबल तथा सुरबल थे। • इस वंश का एक अन्य ताम्रपत्र मल्हार में मिला है, जिसमें भरतबल के पुत्र शूरबल का उल्लेख है।
ओडिशा का सोमवंश- ओडिशा के सोमवंश की स्थापना शिवगुप्त ने की थी। शिवगुप्त के पुत्र जन्मेजय ने त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि धारण की थी, जिसके कारण ऐसा माना जाता है कि उसने कोसल, कलिंग और उत्कल तीनों क्षेत्रों पर शासन किया था। • उनकी भाषा संस्कृत थी और शाही सिक्कों पर देवी लक्ष्मी की तस्वीर अंकित होती थी।
कांकेर का सोमवंश- कांकेर के सोमवंश की स्थापना सिंहराज ने की थी। इसके अन्य प्रमुख शासक वोपदेव, कर्णराज और कृष्णराज थे।
बाण वंश (900 ई.)- छत्तीसगढ़ में पांडुवंशियों के शासन की समाप्ति के बाद बाण वंश ने शासन किया। इस वंश के संस्थापक महामंडलेश्वर मल्लदेव थे। • इनकी राजधानी पाली थी और इस वंश के प्रसिद्ध शासक विक्रमादित्य (870-895 ई.) थे। उन्होंने पाली में शिव मंदिर का निर्माण कराया था। • बाण वंश के शासकों ने संभवतः बिलासपुर क्षेत्र में दक्षिण कोसल के सोमवंशियों को हराया था।
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