धर्म-अध्यात्म

ग्राम कुंडेल में श्रीमद् भागवत कथा का आज दूसरा दिन

कथा के दूसरे दिन कथावाचक पंडित चन्द्रकांत शर्मा ने राजा परीक्षित के जन्म की कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि जब युगों-युगों में पुण्य का उदय होता है, तब ऐसे धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। श्रीमद्भागवत कथा सुनने से पापी भी – पाप मुक्त हो जाते हैं। वेदों का सार मानव जाति तक सदियों से पहुंचता रहा है। भागवत पुराण उसी सनातनज्ञान का प्रवाह है, जो वेदों से चला आ रहा है। इसलिए इसे वेदों का सार कहा गया है।कथावाचक ने आगे बताया कि युद्ध में गुरु द्रोण के मारे जाने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा ने क्रोध में पांडवों को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाया। उसी समय अभिमन्यु की समय अभिमन्य की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का जन्म हुआ। उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन भोग के लिए नहीं, कृष्णभक्ति के लिए मिला है। लेकिन आज का मानव भगवान की भक्ति छोड़करविषय भोग में डूबा है। उसका ध्यान केवल सांसारिकसुखों में लगा है। जीवन का उद्देश्य केवल कृष्ण प्राप्ति है। अगर हम यह निश्चय कर लें कि जीवन में कृष्ण को पाना है, तो इससे बड़ा कोई सुख, संपत्ति या सम्पदा नहीं हो सकती। कथा स्थल पर रामगुलाल साहू, लेमेन्द्र कुमार, नेमेन्द्र कुमार, हेमलाल, हिरासिंग, खिलेश, मानसिंग साहू, गायत्री, दुर्गा साहु, कार्तिक, लोमश, टिकम, कौशल सहित बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहे।

कथावाचक पंडित चन्द्रकांत शर्मा ने कुछ प्रेरणादायक कहानी सुनाई- चमेलीपुरी उर्फ झूलाबाबा जी, ने कुरुक्षेत्र के थेली नामक स्थान पर एक मठ में महात्मा शीतलपुरी जी से बचपन में ही संन्यास-दीक्षा ग्रहण की थी। इसके पश्चात, वह काशी के शिवालयघाट स्थित श्रीनिर्वाणी अखाड़े में लंबे समय तक रहे। बाद में, वह खोजवा अखाड़ मुहल्ले के शंखधारा नामक बगीचे में निवास करने लगे। वहां, झूलाबाबा जी लगभग पचास वर्षों तक निरंतर रहे। उस बगीचे में एक झूला था, जिस पर बैठकर वह सदा भगवान का जाप करते थे। इसलिए, लोगों ने उन्हें झूलाबाबा नाम से पुकारना शुरू किया। झूलाबाबा जी हमेशा दिगंबर अवस्था में रहते थे। भक्तजन जब भी आते, वे रुपये-पैसे भेंट चढ़ाते, किंतु झूलाबाबा जी उस चढ़ावे को हाथ तक नहीं लगाते थे।

अक्सर, कोई जरूरतमंद वह धन उठा ले जाता, जिसे देखकर झूलाबाबा जी अत्यंत प्रसन्नअंतर्यात्रासंकलितहोते। उन्हें भोजन की चिंता नहीं थी; जो कुछ मिलता, उसे भगवान को भोग लगाने के बाद ग्रहण करते और सदा संतुष्ट रहते। प्रत्येक शुक्रवार को, वह खोजवा के बाजार में भिक्षा के रूप में चने मांगते, किंतु अपने लिए नहीं। उन चनों को भिगोकर वह बच्चों में बांट देते। वह कहा करते थे, ‘ईश्वर की सच्ची पूजा लोगों की सेवा से ही होती है। यही ईश्वर की इच्छा है।’ झूलाबाबा जी के सद्गुणों के प्रभाव से गृहस्थों से लेकर श्रेष्ठ साधु-संन्यासी तक उनके शिष्य बन गए। वह भक्तों के मन की बातें जान लेते थे और उनकी कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान बता देते थे।

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