ध्यान में लगे रहो और देखो
मैं कौन हूं वाली जिज्ञासा को कभी मत छोड़ो। सदा उसे जारी रखो। अपने पूरे व्यक्तित्व का विश्लेषण कर लो। ध्यान में लगे रहो। एक न एक दिन विचार का चक्र धीरे-धीरे फिरना छोड़कर रुकने पर मजबूर होगा।

गोधूलि का समय था। दालान में सामान्यतः यही ध्यान का समय है। प्रायः इस समय की सूचना महर्षि के चेहरे से ही मिल जाती है। बहुधा संध्या काल के होते-होते किसी को पता तक नहीं चलता कि कब महर्षि समाधि में डूब जाते हैं और कब बाह्य जगत से अपनी सारी इंद्रियों को खींचकर अंतर्मुखी बना लेते हैं। महर्षि की सन्निधि में एक अजीब शक्ति का प्रसार होता रहता है। उस शक्ति के प्रसार की परिधि में रहकर मैं यह सीख गया कि ध्यान करते-करते प्रतिदिन अपने विचारों को कैसे और अधिक अंतर्मुखी बनाया जाए। यह असंभव ही है कि उनसे संसर्ग रखने पर अंतरंग आलोक से न भर जाए, उनके आध्यात्मिक ज्योतिष चक्र की एक कौंधने वाली किरण से मानसिक जगत चमक न उठे। इस बात का मुझे बार-बार अनुभव हो रहा था कि उन प्रशांत घड़ियों में महर्षि अपनी ओर मेरे मन को खींचे लिए जा रहे थे। ऐसे मौकों पर ही यह साफ जाहिर हो जाता है कि क्योंकर इन महात्मा का मौन इनकी उक्तियों से अधिक महत्व रखता है।
मेरे जीवन में कभी-कभी ऐसा भासित हुआ करता था कि इन महात्मा में ऐसी प्रबल शक्ति है कि यदि वे कह दें, तो कैसी भी आज्ञा क्यों न हो, मैं जरूर उसका पालन करूंगा ही। किंतु महर्षि अपने अनुयायियों को गुलामी की बेड़ियों में नहीं जकड़ते हैं। इस बात में वे भारत के अन्य योगियों में एकदम न्यारे हैं। मैं अपनी पहली मुलाकात में बताई हुई राह के अनुसार ध्यान करने लगा। उस समय महर्षि के उत्तर रहस्यमय मालूम पड़े थे। मैं इस समय अपने अंतरंग की परीक्षा करने लगा था कि ‘मैं’ कौन हूं? क्या मैं शरीर हूं, मांस-रक्त और अस्थि का केवल एक पिंड हूं? या ‘मैं’ और व्यक्तियों से मुझे भिन्न और अलग करने वाले अपने मन, विचार और वेदनाओं का समूह हूं। अब तक मैं इन सबसे अपने को अभिन्न मानता आया था। किंतु महर्षि ने मुझे सचेत कर दिया कि मैं इसे मानी हुई बात न समझें किंतु इसकी भी जांच कर लूं। उनके उपदेश का यही सार थाः मैं कौन हूं वाली जिज्ञासा को कभी मत छोड़ो। सदा उसे जारी रखो। अपने पूरे व्यक्तित्व का विश्लेषण कर लो। अपने ध्यान में लगे रहो। अपनी दृष्टि को अंतरंग की ओर फेरने की कोशिश करते रहो। एक न एक दिन विचार का चक्र धीरे-धीरे फिरना छोड़ कर रुकने पर मजबूर होगा। तब तुम्हारे भीतर एक विचित्र प्रकार का स्फुरण पैदा होगा। उसी ज्ञान स्फूर्ति के पीछे चलो। अपने विचारों को रुकने दो। अंत में तुम अपने ध्येय पर पहुंच जाओगे। मैं प्रतिदिन अपने विचारों के साथ इस तुमुल युद्ध में लगा रहता था। धीरे-धीरे मुझे अपने अंतरंग के अंतरतम तल की पहचान होने लगी। महर्षि के प्रोत्साहन देने वाले नैकट्य में ध्यान करना और आत्म जिज्ञासा को जारी रखना अत्यंत सुलभ और फलदायक सिद्ध होता था। यह आशा और दृढ़ विश्वास कि महर्षि मेरे रहनुमा हैं, अपनी खोज में बार-बार लग जाने की प्रेरणा देता था। महर्षि की अप्रत्यक्ष शक्ति मेरे मन पर गहरा असर करती थी। ऐस मौकों का मुझे स्पष्ट ज्ञान है।
ध्यान करते रहें
ध्यान के वक्त मन में तर्क-वितर्क उठें, तो परेशान न हों, बस आगे बढ़ते रहें। विचारों का तूफान आएगा। घमासान करना होगा। लेकिन फिर एक गहरी शांति का आनंदपूर्ण एहसास होता है। खुद को साक्षी भाव से देखते रहें। शुरुआत में थोड़ी कठिनाई होगी, लेकिन फिर चीजें खुद-ब-खुद व्यवस्थित होने लगेंगी। मन को एकाग्र करने का यह अद्भुत सूत्र है। धैर्य के बाद ही ध्यान सधता है।