प्रेरणा

पुलिस अदालत है आसान, किंतु अटल है ईश्वर का विधान

 Motivation| प्रेरणा: यह विश्व कर्म प्रधान है। हम अच्छे-बुरे जैसे भी कर्म करते हैं, उसका फल हमें भोगना ही पड़ता  है। अच्छे कर्म, शुभ कर्म, पुण्यकर्म से हमें सुख  प्राप्त होता है और बुरे कर्म, अशुभ कर्म, पापकर्म से हमें दुःख प्राप्त होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कर्म ही सुख और दुःख का कारण है। सुख और दुःख हमारे कर्मों का ही परिणाम हैं, प्रतिफल हैं। यदि हमने अच्छे कर्म किए हैं तो एक-न-एक दिन उसका सुफल, हमें प्राप्त होकर  रहेगा। ब्रह्मांड में ऐसी कोई ताकत नहीं जो हमें हमारे शुभ कर्मों, पुण्यकर्मों के सुफल से वंचित कर सके। हम ब्रह्मांड के किसी भी कोने में रहते हों, हमारे सुंदर कर्मों का सुंदर परिणाम, सुख के  रूप में हमें प्राप्त होकर रहेगा। 

                     उसी प्रकार यदि हमने बुरे कर्म किए हैं अर्थात हिंसा, हत्या, व्यभिचार, दुराचार, अत्याचार, बेईमानी, भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक और पापपूर्ण कर्म किए हैं तो हम ब्रह्मांड में जहाँ भी हों, हमारे कर्म  हमारा पीछा करते रहेंगे और उन कर्मों का दुःखद परिणाम हमें न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार मिलेगा, ठीक वैसे, जैसे प्रत्येक क्रिया की विपरीत दिशा में और समान प्रतिक्रिया होती है। यह नियम कर्म पर भी लागू होता है। जैसे दीवार पर फेंकी गई गेंद लौटकर फेंकने वाले की ओर आती है, उसी प्रकार हमारे द्वारा किए गए कर्म हमारी ओर लौट आते हैं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। उसी प्रकार हमारे हर कर्म की प्रतिक्रिया होती है। यदि कर्म शुभ है, तो उसकी प्रतिक्रिया भी शुभ ही होगी अर्थात शुभ होगा, सुख होगा कर्म करने वाले के जीवन में और यदि कर्म अशुभ है तो अशुभ कर्म की प्रतिक्रिया भी और अशुभ कर्म करने वाले अशुभ ही होगी। के जीवन में निश्चित ही अशुभ होगा, बुरा होगा, दुःख होगा। हम कोई हों, वहाँ कोई कर्म करते समय भले ही अकेले रहे और न रहा हो, पर सर्वसाक्षी परमात्मा, सर्वव्यापी परमात्मा तो सर्वत्र व्याप्त है। वह हमारे द्वारा किए गए, किए जा रहे हर कर्म का साक्षी है, गवाह है। इसके साथ ही हमारी आत्मा भी हमारे हर कर्म की साक्षी है। हम बुरे कर्म करते हुए दुनिया की नजर में भले ही अच्छे बने रहें, पर हमारी आत्मा तो हर पल हमारे साथ है और हमारे अच्छे-बुरे हर कर्म की साक्षी है। 

                      भला उससे हम कोई चीज छिपा भी कैसे सकते हैं। हमारी आत्मा में हमारे हर कर्म का लेखा-जोखा है। अस्तु हमारे हर अच्छे-बुरे कर्म का परिणाम एक-न-एक दिन अवश्य ही प्रकट होगा। हाँ, कुछ कर्मों का फल तो तत्काल ही मिल जाता है, पर कुछ कर्मों का फल वर्षों बाद, भविष्य में या अगले जीवन में भी प्राप्त होता है, पर मिलता अवश्य है। बीज बोते ही बीज वृक्ष तो नहीं बन जाता। हाँ, उसे बीज से वृक्ष बनने में समय तो लगता है। हमारा हर कर्म ही बीज है, जो एक-न- एक दिन अंकुरित होता हुआ, विकसित होता हुआ वृक्ष के रूप में परिणत होगा और उस वृक्ष में सुख *** और दुःख के फल लगे होंगे, जिसका भोग हमें करना ही होगा। इसे ही कर्मभोग कहते हैं। कोई व्यक्ति यदि हर पल सुख-शांति और आंतरिक प्रफुल्लता का अनुभव करता है तो यह  उसके द्वारा किए गए शुभ कर्मों का ही परिणाम है और यदि किसी व्यक्ति का जीवन दुःख, पीड़ा और वेदना से भरा हुआ है तो यह भी उसके बुरे कर्मों का ही परिणाम है। 

                       जैसे हम जहाँ भी हों हमारी आत्मा हमारे साथ होती है, वैसे ही हम जहाँ भी हों हमारे कर्म हमारे साथ होते हैं। हमारे द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव, संस्कार, असर हमारे ऊपर सदैव बना होता है और कर्मों के प्रभाव के फलस्वरूप ही हमारे जीवन में सुख और दुःख घटित होते हैं। कोई व्यक्ति आत्महत्या कर  लेता है, इसके पीछे भी उसके ऊपर उसके द्वारा किए गए बुरे कर्मों का ही असर होता है। उसके  द्वारा किए गए बुरे कर्म ही संस्कार रूप में उसे ऐसा करने को प्रेरित करते हैं। किसी की हत्या, दुर्घटना, आर्थिक बदहाली, अशांति आदि के पीछे भी उसके कर्मों का ही हाथ होता है। 

               अस्तु यह तो स्पष्ट है कि हमें हमारे कर्मों से कोई भी बचा नहीं सकता है। हमारे कर्म हमारे सम्मुख सुख और दुःख के रूप में प्रकट होंगे ही। हमें जीवन में ऐसी कई घटनाएँ देखने और सुनने को मिलती हैं, जिससे हमें कर्मफल सिद्धांत में  विश्वास करना ही पड़ता है। यहाँ एक ऐसी ही  घटना का जिक्र करना अत्यंत प्रासंगिक है। एक गाँव में दो व्यापारी रहते थे। दोनों में  काफी दोस्ती थी। दोनों व्यापार के सिलसिले में  शहर में पहुँचे। महीनों रहकर दोनों ने व्यापार में खूब मुनाफा कमाया। अंततः एक व्यापारी के मन  में लालच आया और वह पूरा मुनाफा अकेले ही पाने के लिए अपने मित्र की हत्या करने का विचार करने लगा। वह उस दिन अपने दोस्त के साथ बाहर नहीं गया। अस्तु वह कमरे पर ही ठहर गया। उसने कमरे पर रहकर भोजन बनाया और उस भोजन में विष मिला दिया। जब शाम में उसका दोस्त कमरे पर आया तो उसने वह विष भरा भोजन अपने दोस्त के लिए परोस दिया। वह दूसरा व्यापारी अपने दोस्त की साजिश से अनभिज्ञ था, इसलिए कोई शक करने की गुँजाइश ही नहीं थी। 

          उसने अपने दोस्त को भी भोजन करने को कहा, पर जिसने उस भोजन में विष मिलाया था वह उस भोजन को कैसे करता। अस्तु उसने अपने मित्र से कहा कि मैंने पहले ही भोजन कर लिया है। तुम भोजन ग्रहण करो। अंत में उस व्यक्ति ने विष मिला हुआ भोजन ग्रहण कर लिया और भोजन करने के एक घंटे बाद ही उसके मुख से झाग निकलने लगे। कुछ ही देर में उसके प्राणपखेरू उड़ गए। वह व्यक्ति अपने मृत दोस्त को वहीं छोड़कर भागने लगा, पर पास के ही एक व्यक्ति ने इस घटना की खबर पुलिस को दे दी। पुलिस ने खोज-बीन करनी शुरू कर दी। वह व्यक्ति गाड़ी में बैठकर गाँव भागने की फिराक में था कि तभी पुलिस ने उसे धर दबोचा। अंततः मामला अदालत में पहुँचा। अपने आप को छुड़ाने के लिए वह व्यक्ति जुगत-जुगाड़ भिड़ाने लगा। पैसे का प्रलोभन देकर उसने पुलिस और अदालत, दोनों को अपने पक्ष में कर लिया। 

            पुलिस अदालत में उसके खिलाफ कोई सबूत जुटा नहीं पाई; क्योंकि भोजन में विष मिलाते समय तो उसे किसी ने देखा नहीं था, इसलिए अंततः साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया। अब जब वह अपने कमरे में लौट के आया तो वह विचार करने लगा कि रुपये के लिए उसने – कैसे अपने दोस्त की हत्या कर दी। पैसे और पैरवी के बल पर वह पुलिस-अदालत से तो बच निकला पर वह तो जानता था कि अपने दोस्त की हत्या मैंने ही की है। किसी को पता हो न हो, पर उसे तो पता था  कि हत्या मैंने ही की है। उसे घोर आत्मग्लानि हुई । उसकी सर्वसाक्षी आत्मा तो भोजन में विष मिलाते समय भी उसके साथ थी और तब भी उसके साथ  ही थी, जब वह विष भरा भोजन अपने दोस्त को  परोस रहा था और उस पर भरोसा करके उसका दोस्त वह भोजन ग्रहण कर रहा था। वह अदालत से बरी हो चुका था, पर फिर भी वह किसी अज्ञात भय से भयभीत रहा करता था। किसी अनहोनी की आशंका से उसके रोम- रोम सिहर उठते थे। 

               उसका सुख-चैन जाता रहा और अंततः चिंता और आत्मग्लानि के कारण वह नानाविध मानसिक-शारीरिक व्याधियों का शिकार होता गया। अब व्यापार में भी उसका मन नहीं लगता । उसे उसकी देख-भाल करने वाला भी कोई नहीं रहा। असाध्य रोग का शिकार होकर वह वर्षों तक भारी पीड़ा और वेदना में किसी तरह जीवित रहा और अंततः असाध्य बीमारी के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। यह कहानी, यह घटना यह बताती है कि पैसे और पैरवी के बल पर पुलिस और अदालत से बचा जा सकता है। साक्ष्य के अभाव में भी पुलिस और अदालत से बचा जा सकता है, बरी हुआ जा सकता है, पर ईश्वर की अदालत से बचा नहीं जा सकता; क्योंकि ईश्वर के घर में देर है, अंधेर नहीं। कर्मफल का सिद्धांत बड़ा अकाट्य है। कर्मों का फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है। इस संबंध में परमपूज्य गुरुदेव ने ठीक ही कहा है कि ‘पुलिस अदालत है आसान, किंतु अटल है ईश विधान।’ ईश्वर का विधान बड़ा अटल है। 

                  कर्मफल का विधान बड़ा अटल है। हमें हमारे कर्मों का फल मिलकर रहता है। इसलिए समझदारी इसी में है कि हम सदैव बुरे कर्मों से दूर रहें। बुरे कर्म करने से बचें और सदैव शुभ कर्म, पुण्यकर्म करें, जिससे हमें सुख की प्राप्ति हो, पुण्य की प्राप्ति हो। शुभ कर्म करने से ही हमें पुण्य की प्राप्ति होती है और पुण्य से ही हमें सुख की प्राप्ति होती है। पुण्य से ही संकट में हमारी रक्षा होती है। । अस्तु यहाँ यह समझना भी आवश्यक है कि जिस व्यक्ति की विष के कारण मृत्यु हुई, यदि उसके जीवन में भी पुण्य की बहुलता होती तो वह अपने दोस्त की साजिश का शिकार होने से बच सकता था, पर जीवन में पुण्य न होने के कारण उसकी रक्षा नहीं हो सकी और वह अकालमृत्यु को प्राप्त हुआ। हमारा पुण्यकर्म ही हमारी रक्षा करता है। व्यक्ति को सदैव शुभ कर्म, पुण्यकर्म, श्रम, पुरुषार्थ, दान-पुण्य, सेवा, भगवद्भक्ति, परोपकार आदि करते रहना चाहिए, जिससे जीवन में पुण्य की प्राप्ति हो और पुण्य से सुख की प्राप्ति हो और हर संकट से हमारी रक्षा हो सके।

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समुद्री यात्रा कर लौटे यात्री ने गोताखोर से कहा- “भाई! मैं तो समुद्र में दूर-दूर तक घूमकर आया, पर मुझे एक मोती नहीं मिला, किंतु तुम एक डुबकी मारकर मोती निकाल लेते हो।” गोताखोर ने उत्तर दिया – “मित्र! जीवन में सफलता उन्हें नहीं मिलती, जो बिना लक्ष्य के लंबी यात्रा करते रहते हैं; वरन उन्हें मिलती है, जो एक उद्देश्य निर्धारित कर उसी पर एकाग्रता से प्रयास करते हैं।” मूल्यवान की प्राप्ति हेतु उसी के अनुरूप अध्यवसाय करना पड़ता है।

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