गठिया रोग का उपचार

LIFESTYLE: बढ़ती उम्र के साथ आर्थराइटिस की समस्या होना एक आम बात है। इसे गठिया रोग या जोड़ों में दरद की बीमारी भी कहा जाता है। इसके सामान्य लक्षणों में हाथ, कंधों, पीठ का निचला हिस्सा, कमर, घुटने और कूल्हे के जोड़ों में दरद और सूजन का आ जाना है। इस रोग के उत्पन्न होने का मुख्य कारण है- हड्डियों को आपस में जोड़ने वाले ऊतकों (कार्टिलेज) का धीरे-धीरे उम्र के साथ नष्ट होते जाना। वैसे तो यह बुढ़ापा का रोग माना जाता है, परंतु वर्तमान की स्थिति में गलत खान-पान की आदतें और विकृत जीवनशैली के कारण कम उम्र में ही लोग इसके शिकार होते जा रहे हैं। आयुर्वेद के सिद्धांतों में इसे वातव्याधि माना गया है। आचार्य चरक के संहिता ग्रंथ में संधिगत वात अर्थात ऑस्टियो आर्थराइटिस का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। जोड़ों में सूजन तथा चलने- फिरने में दरद एवं परेशानी को इस रोग का प्रमुख लक्षण बताया गया है। समय पर इसका उपचार एवं प्रबंधन न किया जाए तो यह धीरे-धीरे असह्य पीड़ा का कारण बन जाता है।
यह ऐसा रोग है, जिसकी समय पर रोक- थाम व उपचार की प्रक्रिया न अपनाई जाए तो व्यक्ति का जीवन अपनी गुणवत्ता से हीन होकर पीड़ा और विकलांगता का पर्याय बन जाता है। संधिगत वात के प्रबंधन एवं उपचार के लिए एलोपैथ, आयुर्वेद, एक्यूप्रेशर व अन्य योग आदि वैकल्पिक चिकित्सा विधाओं की सहायता ली जाती है। आहार संतुलन, जीवनशैली में परिवर्तन तथा योगाभ्यास व व्यायाम को इसके उपचार में सबसे ज्यादा प्रभावी माना गया है। इसके साथ ही प्राचीन भारतीय चिकित्सा परंपराओं में भी वातव्याधियों के समुचित प्रबंधन की अनेक तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन उन्हें आधुनिक युग की माँग के अनुरूप वैज्ञानिकता के साथ सामने लाने की आवश्यकता है। इस दिशा में पहल करते हुए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्राच्य अध्ययन विभाग के अंतर्गत एक विशिष्ट शोध अध्ययन कार्य संपन्न किया गया है। यह शोध अध्ययन वर्ष-2020 में ‘आयुर्वेद’ विषय के अंतर्गत शोधार्थी अल्का मिश्रा द्वारा विश्वविद्यालय के श्रद्धेय कुलाधिपति डॉ० प्रणव पण्ड्या जी के विशेष संरक्षण एवं डॉ० वंदना श्रीवास्तव जी के निर्देशन में पूरा किया गया है। प्रायोगिक एवं विवेचनात्मक विधि पर आधृत इस शोध अध्ययन का विषय है- ‘इवॉल्यूशन ऑफ इफिकैसी ऑफ मर्मथैरेपी विद् जानु वस्ति इन दि मैनेजमेन्ट ऑफ जानु संधिगत वात (ऑस्टियो आर्थराइटिस ऑफ नी)।’ इस महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक शोध अध्ययन को शोधार्थी द्वारा कुल छह अध्यायों में विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है।
प्रथम अध्याय ‘विषय परिचय’ के रूप में है। इसके अंतर्गत इस शोध अध्ययन की आवश्यकता, उद्देश्य एवं इसके विषय-क्षेत्र से संबंधित शोधकार्यों व ग्रंथों-पुस्तकों, शोधपत्रों का सर्वेक्षणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही चरों का विवेचन व परिकल्पनाओं को भी इसी अध्याय में समाहित किया गया है। आयुर्वेद का ज्ञान प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा प्रदान किया गया अमूल्य उपहार और अनुदान है। यह मनुष्य जीवन का विज्ञान है, जो संपूर्ण व्यक्तित्व को आरोग्यवान, स्वस्थ एवं सुविकसित बनाने में समर्थ है। भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में आयुर्वेद का स्थान आदिकाल से सर्वोपरि और प्रासंगिक रहा है। यह शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व अन्य सभी प्रकार के मनोशारीरिक स्तर को प्रभावित करने वाले तनावों तथा अन्य कारणों को दूर कर हमारी रोग प्रतिरोधक, ऊर्जा और प्राणशक्ति में वृद्धि करता है। आयुर्वेद का सिद्धांत यह है कि समूचे विश्व- ब्रह्मांड की रचना पंचमहाभूतों से हुई है और वहीं पंचमहाभूत से हमारा शरीर और जीवन भी बना है। अतः प्रकृति और उसके उपादानों को आधार बनाकर ही यह रोगोपचार और स्वास्थ्य प्रबंधन की ओर अग्रसर होता है। आयुर्वेद का ही एक विशिष्ट चिकित्सकीय पक्ष है-मर्म चिकित्सा, जिसे ऋषियों ने शरीरस्थ प्राण-ऊर्जा के मर्मस्थलों को आधार बनाकर विकसित किया है। वेद, उपनिषद्, पुराण आदि शास्त्रों में भी मर्मस्थलों का उल्लेख है, परंतु आयुर्वेद विज्ञान में इसे एक उपयुक्त और प्रभावी व समग्र चिकित्सा तकनीक के स्वरूप में स्थान दिया गया है। वर्तमान समय में आयुर्वेद का प्रचलन तो बहुतायत दिखाई देता है, परंतु मर्म विज्ञान एवं मर्म • चिकित्सा के क्षेत्र में समाज अभी ज्यादा जागरूक नहीं है। अतः इस दिशा में यह शोध अध्ययन पर्याप्त जानकारी और मार्गदर्शन प्रदान करने वाला महत्त्वपूर्ण सोपान साबित होगा। अध्ययन के द्वितीय अध्याय में मर्म विज्ञान एवं उसके चिकित्सकीय प्रयोग के मूलभूत पहलुओं की विवेचना की गई है।
इसके अंतर्गत मर्म विज्ञान का ऐतिहासिक, साहित्यिक स्वरूप तथा यौगिक तकनीकों के साथ इसके अंतर्संबंधों को प्रस्तुत किया गया है। मर्मविज्ञान का एक स्वतंत्र चिकित्सा विधि के रूप में क्या स्वरूप है तथा यह विभिन्न रोगों के उपचार में किस प्रकार प्रयुक्त की जाती है, इसके प्रयोग की तकनीक क्या है, इन महत्त्वपूर्ण पहलुओं की विस्तृत विवेचना इस अध्याय की अंतर्वस्तु है। तृतीय अध्याय में शोधार्थी द्वारा शोध विषय से संबंधित व्यवहार्यता अध्ययन (पायलट स्टडी) की विवेचना की गई है। इस अध्ययन में जानु संधिगत वात के प्रबंधन में जानु वस्ति के प्रभाव एवं महत्त्व को प्रायोगिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रयोग के लिए शोधार्थी द्वारा देव संस्कृति विश्वविद्यालय के आयुर्वेद एवं समग्र स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत जानु संधिगत वात के छह मरीजों को चयनित किया गया। इन सभी की उम्र 40 से 70 वर्ष के मध्य थी। प्रयोग से पूर्व सभी को इस उपचार-प्रक्रिया से संबंधित आवश्यक जानकारी प्रदान की गई तथा सहभागिता के लिए उनसे लिखित स्वीकृति प्राप्त की गई। सर्वप्रथम चयनितों की हिमेटोलॉजिकल, बायलॉजिकल जाँच एवं घुटने के संधिस्थान का एक्स-रे परीक्षण कर महत्त्वपूर्ण तथ्यों को प्राप्त किया गया। तत्पश्चात 21 दिनों तक नियमित 50 से 60 मिनिट की अवधि में जानु वस्ति तकनीक से उपचार प्रदान किया गया। प्रयोग पूर्ण होने पर पुनः पूर्व की भाँति स्वास्थ्य परीक्षण किया गया और दोनों परीक्षणों से प्राप्त आँकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया गया। इस अध्ययन के परिणामों में शोधार्थी ने यह पाया कि जानु संधिगत वात (ऑस्टियो आर्थराइटिस) पर जानु वस्ति उपचार का सकारात्मक एवं सार्थक प्रभाव पड़ता है।
इस प्रारंभिक अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष को आधार बनाकर शोधार्थी द्वारा जानु वस्ति के द्वारा गठिया के उपचार को अपनी मुख्य शोध-समस्या के समाधान हेतु सहायक तकनीक के रूप में प्रयुक्त किया गया है। शोध अध्ययन का चतुर्थ अध्याय सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें शोध विषय पर केंद्रित प्रयोग की शोध विधि एवं प्रामाणिक तथ्यों का विवेचन किया गया है। प्रयोग को पूरा करने के लिए शोधार्थी द्वारा विश्वविद्यालय के समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आयुर्वेद केंद्र में उपचार के लिए आए लोगों में से ऑस्टियो आर्थराइटिस (घुटने के जोड़ों में पुराना दरद जिसका विवरण आयुर्वेद में जानु संधिगत वात के रूप में किया गया है) के बीस लोगों को चयनित किया गया। इनमें महिला, पुरुष दोनों सम्मिलित थे और इनकी आयु 40 से 70 वर्ष के मध्य थी। प्रयोग प्रारंभ करने से पूर्व सभी चयनितों का शोध-उपकरणों की सहायता से स्वास्थ्य परीक्षण एवं एक्स-रे किया गया। परीक्षण के पश्चात नौ दिनों तक नियमित लगभग एक-से-सवा घंटे तक शोधार्थी द्वारा सभी प्रतिभागियों का जानु वस्ति (क्षीरबला तेल द्वारा), दशमूल क्वाथ से नाड़ी स्वेद तथा मर्म चिकित्सा (जानु मर्म, इंद्रवस्ति मर्म, गुल्फ मर्म एवं क्षिप्रा मर्म) प्रदान की गई। प्रयोग की अवधि पूर्ण होने पर दूसरे एवं चतुर्थ सप्ताह में उपचार के प्रभाव एवं रोग की स्थिति का परीक्षण किया गया। प्रारंभिक एवं प्रयोग समाप्ति के उपरांत एकत्रित किए गए शोध के आँकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण करने पर शोधार्थी द्वारा शोध परिणाम के रूप में यह पाया गया कि मर्म चिकित्सा तथा जानु वस्ति का जानु संधिगत वात के प्रबंधन एवं उपचार में सार्थक एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
शोध के पंचम अध्याय ‘परिणाम एवं विवेचन’ में शोधार्थी द्वारा प्रयोग से प्राप्त आँकड़ों के विश्लेषण द्वारा प्राप्त परिणामों की विस्तृत विवेचना करते हुए शोध उद्देश्य एवं परिकल्पनाओं की सार्थकता को प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही शोध अध्ययन की महत्त्वपूर्ण एवं उपादेयी उपलब्धि को निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत करते हुए इस अध्ययन में प्रयुक्त चिकित्सा तकनीकों के महत्त्व एवं प्रभाव को सामने लाने का प्रयास किया गया है। इस शोध अध्ययन का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष ऐसी चिकित्सा तकनीकों को उजागर करना है, जिनका प्राचीन वैदिक चिकित्सा प्रणालियों में विशिष्ट स्थान है। आयुर्वेद हमारी प्राचीनतम संस्कृति का उन्नत स्वास्थ्य विज्ञान है। संपूर्ण स्वास्थ्य के संरक्षण, विकास एवं उपचार में आयुर्वेद की महत्ता अद्यतन यथावत् है। इसी महत्ता के फलस्वरूप इस शोध में आयुर्वेद की विशिष्ट तकनीकों का प्रयोग हेतु चयन किया गया है, ताकि आधुनिक विज्ञान के मानदंडों के समक्ष वैज्ञानिक कसौटियों के माध्यम से भी इन ऋषिप्रणीत तकनीकों के महत्त्व को जनसामान्य के सामने लाया जा सके एवं इनके लाभों से सभी को परिचित कराया जा सके। यही इस शोध अध्ययन का मूल उद्देश्य भी है। उल्लेखनीय है कि इस अध्ययन के सार्थक एवं सकारात्मक परिणामों के पीछे का मुख्य कारण प्रयोग हेतु चयनित मर्म चिकित्सा और जानु वस्ति की विशिष्ट तकनीकें हैं।
मर्म चिकित्सा एक पुरातन चिकित्सा विज्ञान है, जिसमें व्यक्ति स्वयं रोगों का उपचार, प्रबंधन एवं रोक-थाम करता है। यह ऐसी स्व-चिकित्सा विधि है, जो शरीर में स्थित 107 मर्म स्थानों (प्राण- शक्ति के केंद्र) के माध्यम से संपूर्ण स्वास्थ्य पर कारगर रूप से प्रभावी लाभ पहुँचाती है। मर्म चिकित्सा को भारत की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक माना गया है। वेद, उपनिषद्, पुराण आदि में मर्म चिकित्सा के उल्लेख को शोध में प्रस्तुत किया गया है। चरक, सुश्रुत आदि संहिताओं में इस विधि की विस्तृत विवेचना प्राप्त होती है। मनुष्य के शरीर-क्रिया विज्ञान के आधार पर कैसे मर्म चिकित्सा विज्ञान को विकसित एवं समग्र उपचार-विधि के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, इस तथ्य का विस्तृत एवं स्पष्ट विवेचन इस शोध में समाहित है। यह संधिगत वात रोगों पर तो सार्थक प्रभाव डालती है, साथ ही संपूर्ण स्वास्थ्य को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित कर आरोग्यता प्रदान करती है। इतनी सरल एवं सहज है कि कोई भी व्यक्ति कुछ दिनों में किसी योग्य प्रशिक्षक से रोगानुसार अपने शरीर के मर्म स्थानों एवं उन पर दबाव की प्रक्रिया को सीखकर घर बैठे ही स्वयं से अपनी बड़ी-से-बड़ी बीमारी ठीक कर सकता है। इसके कोई दुष्प्रभाव भी नहीं हैं। इस शोध अध्ययन में पर्याप्त मार्गदर्शन एवं प्रेरणा प्रदान करने वाला सार्थक एवं सराहनीय कार्य है।
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