प्रेरणा

प्रकाश की स्थापना वर्ष

  Motivation| प्रेरणा:  हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी दीपावली का महापर्व हम सभी मनाएँगे। इसके प्रचलित लौकिक महत्त्व और इस दिन संपन्न किए जाने वाले धार्मिक, सांस्कृतिक व अन्य पारंपरिक कर्मकांडों से तो न्यूनाधिक रूप में सभी परिचित हैं। मकान-दुकान की साफ-सफाई, नए वस्त्राभूषण व सामानों की खरीदारी, साज-सजावट, रंग-बिरंगी लाइटें, मिष्टान्न का आदान-प्रदान, दीपों की प्रज्वलित कतारें, बच्चों की फुलझड़ी-पटाखे, सौहार्दपूर्ण मेल-मुलाकात आदि ये ऐसी बातें हैं, जो दीपावली पर्व से जुड़ी लोक संस्कृति और परंपराओं को प्रकट करती हैं, परंतु इस पर्व का वास्तविक स्वरूप, संदेश और प्रेरणाएँ इससे कहीं ज्यादा व्यापक हैं। 

              सनातन धर्म, बौद्ध, जैन, सिख व अनेक विदेशी संस्कृतियों में इस पर्व का संदर्भ अलग- अलग है। अनेक ऐतिहासिक घटनाक्रम भी दीपावली पर्व से जुड़े हैं। यूरोप, अफ्रीका से लेकर एशियाई देशों में जैसे- सुमात्रा एवं जावा, मॉरीशस, श्रीलंका, चीन, जापान, थाईलैंड, म्यांमार, नेपाल आदि में भी किसी-न-किसी रूप में इस पर्व को मनाए जाने का प्रचलन है, लेकिन अन्य देशों की तुलना में हमारे भारतीय समाज व संस्कृति में दीपावली पर्व का कुछ खास ही महत्त्व है। भारतवर्ष में दीपावली घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य और आनंद का पर्याय-प्रतीक रहा है। इस पर्व का सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति के लोकजीवन में विद्यमान है। यह भारतीय जनमानस में उल्लास, प्रेम, आनंद, पवित्रता, सौहार्द, प्रेरणा और प्रकाश से युक्त जीवनरस की महिमा का महापर्व है। 

     पाँच दिनों के पाँच पर्वो व विशिष्ट तिथियों से मिलकर बनता है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, अमावस्या लक्ष्मीपूजन, प्रतिपदा अन्नकूट-गोवर्धन पूजा व भाईदूज इन पाँच पर्वों की श्रृंखला से दीपावली का महापर्व सर्वाधिक खास हो जाता है। वैसे सामान्य धारणाओं में तो यह लक्ष्मी पूजा का एक विशेष पर्व समझा जाता है, लेकिन इसके साथ ही इस महापर्व में धन्वंतरि पूजन, नरक चतुर्दशी, कालीपूजा, हनुमान जयंती, महावीर निर्वाण, बलि प्रतिपदा, गोवर्धन पूजा, यम द्वितीया – भाईदूज, जैसी विशिष्ट पर्व-श्रृंखला समाहित है और भारतीय समाज में सभी की अपनी महत्ता है। दीपावली पर्व की सार्थकता तभी है, जब इसके साथ जुड़ी प्रेरणाओं, संदेश और सौभाग्य को आत्मसात् किया जाए। इसमें समाहित प्रत्येक तिथियों का हमारे शास्त्रों में विशेष माहात्म्य है और उससे जुड़ी कल्याणकारी भावना भी। जैसे दीपावली पर्व की शुरुआत त्रयोदशी तिथि को धनतेरस के साथ ही हो जाती है। इस तिथि को भगवान धन्वंतरि के अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

          समुद्र मंथन से इसी दिन धन्वंतरि जी के एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे में आयुर्वेद लेकर प्रकट होने का पौराणिक  आख्यान है। इसमें हमारे आरोग्य की प्राप्ति और स्वास्थ्य चेतना को जाग्रत करने की मूल प्रेरणा भी समाहित है। इस महापर्व का दूसरा दिन नरक चतुर्दशी है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसी दिन नरकासुर के वध का आख्यान जुड़ा है। यह अर्घ्यदान द्वारा पितरों की मुक्ति की कामना से भी संबद्ध है। हनुमान जयंती का उत्सव भी इसी तिथि में सम्मिलित है। हमारी शास्त्रीय व्याख्याओं में ‘नरक’ शब्द का सीधा संबंध मृत्यु के देवता यमराज से है। किसी की अकाल मृत्यु न हो, इस निमित्त यम देवता से प्रार्थना के साथ दीप प्रज्वलित करने की परंपरा निर्वाह की जाती है। मान्यता यह है कि यम मृत्यु के देवता हैं, अतः उन्हीं के द्वारा समस्त संसार के कर्मों का नियमन होता है और वे ही संयम के अधिष्ठाता देवता भी हैं। 

           जीवन की संपूर्णता और अनुशासन की भावना इस पर्व में समाहित है। शास्त्रों में उल्लेख है कि प्रातः स्नान-दान एवं सायं दीपदान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। महापर्व का तीसरा दिन अमावस्या का है। यही दीपावली उत्सव का प्रमुख दिन है। भगवान गणेश की आराधना और सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी का पूजन इसी दिन किया जाता है। सामान्य रूप से तो लक्ष्मी-गणेश के सम्मिलित पूजन और दीपदान को ही इस दिन मुख्य कृत्य माना जाता है, परंतु योग, तंत्र और अध्यात्म की साधना के लिए भी इस अमावस की रात्रि का अत्यंत महत्त्व रहा है। साधकों की दृष्टि में यह महालक्ष्मी तत्त्व जिसे श्रीतत्त्व भी कहा जाता है, के रहस्य को जानने तथा उसकी गूढ़तम विभूतियों की उपलब्धि प्राप्त करने का पर्व है। श्रीविद्या और श्रीयंत्र के साधक जिस तत्त्व की उपासना करते हैं, वह ‘श्रीतत्त्व’ का दीपावली पर्व महामहोत्सव है। 

       श्रीतत्त्व से लौकिक और अलौकिक-दोनों जीवन पक्ष समान रूप से संबद्ध हैं।’ श्री’ को परमेश्वर की परम ऐश्वर्य शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। श्री से संयुक्त होने से ही परमात्मा का सत्यं- शिवं-सुन्दरम् स्वरूप अभिव्यक्त हो पाता है। संसार के परम कल्याण और आनंद के लिए यह श्रीतत्त्व ही लक्ष्मी के अष्टरूपों में अभिव्यक्त हो पाता है। लक्ष्मी के आठ स्वरूप हैं- आद्यलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी और योगलक्ष्मी। इन्हीं को आधार बनाकर लोक- परंपराओं में राजा के ऐश्वर्य को राजलक्ष्मी, गृह स्वामिनी को गृहलक्ष्मी, युद्ध विजय को विजयलक्ष्मी, व्यापार लाभ को वाणिज्य लक्ष्मी आदि कहे जाने का प्रचलन हुआ है। दीपावली पर्व पर लक्ष्मी पूजन की सार्थकता को हमारे ऋषियों ने आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित विभूतियों के जागरण के संदर्भ में देखा है।

       महालक्ष्मी का आंतरिक वैभव सभी के भीतर आत्मविभूति के रूप में विद्यमान है, परंतु इस विभूति से केवल वही लाभान्वित हो पाता है, जो आत्मज्योति को स्वयं में प्रकाशित करने में सफल होता है। दीपावली इसी आत्मज्योति को उदीप्त करने का दुर्लभ संयोग एवं अवसर है जो हर वर्ष प्रत्येक के जीवन में आता है, लेकिन दुर्भाग्यवश अज्ञान के कारण लोग बाह्य विभूतियों में ही उलझे रह जाते हैं और आत्मविभूति की ओर देख ही नहीं पाते। दीपावली की दीपज्योति में इसी अंतःप्रकाश की प्रेरणा को जाग्रत करने का संदेश है। दीपावली का दीपोत्सव सिर्फ एक सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं, अपितु अमावस के घनघोर अंधकार की भाँति जीवन में अज्ञानरूपी अंधकार पर विजय प्राप्त कर शाश्वत आनंद और प्रकाश की स्थापना का महापर्व है। इससे जुड़े पौराणिक आख्यानों में भी यही मर्म समाहित है।

              राम की विजय, सावित्री का मृत्यु पर वरदान प्राप्त करना, यम देवता का नचिकेता को दिया गया दिव्य ज्ञान, भगवान महावीर का निर्वाण आदि अनेक दृष्टांत दीपोत्सव के यथार्थ मर्म और मूल प्रेरणाओं को प्रकट करते हैं। इस महापर्व का चतुर्थ सोपान अमावस्या के पश्चात आने वाली तिथि प्रतिपदा पर्व का है। इस दिन नए अन्न का पूजन और उससे निर्मित पकवान द्वारा ईश्वर से सुख, समृद्धि और दीर्घायुष्य की प्रार्थना की जाती है। इसे नवान्न-पूजा पर्व अथवा अन्नकूट-पूजा पर्व भी कहा जाता है। हम सभी के जीवन का आधार प्राण तत्त्व है। अन्न से प्राण तत्त्व प्रकट होता है और व्यक्ति आरोग्य, सामर्थ्य, जीवनीशक्ति तथा दीर्घायु को प्राप्त करता है। शास्त्रों में अन्न को ब्रह्म की संज्ञा प्रदान की गई है। इसी पोषक शक्ति रूप ईश्वर की आराधना, आभार और उसके प्रति प्रसन्नता की अभिव्यक्ति का मर्म प्रतिपदा पर्व में सन्निहित है। 

              दीपावली महापर्व से संयुक्त अगला सोपान है-गोवर्धन पूजा। हमारी संस्कृति में गाय को सुख, समृद्धि और वैभव का पर्याय तथा गंगा की भाँति पवित्र माना गया है। इसमें समाहित कल्याणकारी विशेषताओं के कारण यह साक्षात् लक्ष्मी का पर्याय है। माँ लक्ष्मी की भाँति गाय भी जीवन को पोषण और समृद्धि प्रदान करती है, इसलिए इस दिन गायों की पूजा और उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने का विधान बनाया गया है। गोवर्धन पूजा का दूसरा तात्पर्य प्रकृति की उपासना और आराधना से भी जुड़ा है। इसमें दैवी आपदाओं और असंतुलन से मुक्ति के लिए प्रकृति की शरण में जाने का मर्म समाहित है। गोवर्धन पर्व के पश्चात भाईदूज का पर्व आता है; जिसमें बहनें, भाइयों को तिलक कर यम देवता से उनकी लंबी उम्र की प्रार्थना करती हैं। इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। इस दिन यमुना ने यम को निमंत्रित कर उनका सत्कार किया था तथा सभी भाइयों के सुख और दीर्घायु का वरदान प्राप्त किया था। यम की प्रसन्नता के लिए इस पर्व को मनाने की परंपरा है। यह पर्व हमारी संस्कृति में भाई-बहन के अटूट प्रेम-स्नेह का प्रतीक है। 

           इस तरह पाँच दिनों की अवधि में अनेक विशिष्ट तिथियों-संयोगों को स्वयं में सम्मिलित करने वाला दीपावली का महापर्व हम सभी के जीवन में अत्यंत महत्त्व रखता है। प्रकृति में ऋतु परिवर्तन और अंतश्चेतना में प्राणों के आनंद में रूपांतरित होने का अनुपम अवसर है। इसमें समाहित प्रेरणाओं के मनोविज्ञान को समझ लिया जाए तो यह ऋद्धि-सिद्धि, श्री और समृद्धि का वरदान देने वाला पर्व है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह पर्व बंधन-मुक्ति का अलभ्य सुअवसर है। दीपक को आत्मज्योति का प्रतीक मानकर भीतर के अज्ञानरूपी अंधकार पर विजय प्राप्त करने का यह एक अत्यंत ही दुर्लभ ब्रह्मांडीय क्षण है। शक्तिसाधक इस क्षण का लाभ उठाने के लिए लंबी तैयारी और प्रतीक्षारत रहते हैं, ताकि वे जन्म-जन्मांतरों के बंधन को इसी एक शुभ मुहूर्त में हटाकर आत्मज्योति को प्राप्त कर सकें। शास्त्रों में दीपावली की रात्रि को यों ही महारात्रि नहीं कहा जाता, वरन उसके पीछे एक गहन अध्यात्म दर्शन निहित है। 

             हम सभी के लिए भी दीपावली की सार्थकता का मर्म यही है कि हम अपनी आत्मज्योति को प्रकाशित करने वाली प्रेरणाओं और संकल्पों को इस महापर्व की मूलचेतना से जोड़ सकें। दीपकों के प्रकाश की ज्योति – आभा हमारे जीवन में सत्प्रवृत्तियाँ, सज्ञान, संवेदना, प्रेम, करुणा, त्याग, सुख-शांति, समृद्धि, श्री और सिद्धि, शुभ और लाभ के पर्याय के रूप में अभिव्यक्त हो सके इसी पवित्र कामना के साथ इस महापर्व को सार्थक बनाने में हम सभी अग्रसर हों। युगऋषि की चेतना का दिव्य संरक्षण और प्रखर ज्ञान का आलोक ज्योति पर्व पर सभी की अंतश्चेतना में अंकुरित हो उठे, ऐसी प्रार्थना और कामना सभी के लिए निवेदित है।

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शाब्दिक रूप से धर्म शब्द की व्युत्पत्ति ‘धृ’ धातु से होने के कारण, धर्म शब्द का अर्थ होता है- धारण करना। जो तत्त्व सारे संसार को धारण करता है अथवा उसके द्वारा धारण करने योग्य होता है, उसे धर्म कहते हैं। अँगरेजी भाषा की दृष्टि से धर्म ‘रिलीजन’, व्यक्ति तथा समाज को बाँधने वाला माध्यम है और यही माध्यम उपासक एवं उपास्य, भक्त एवं भगवान तथा आराधक एवं आराध्य के बीच सेतु बन जाता है। सभी चिंतक विचारक, संत-दार्शनिक, तपस्वी-सुधारक, इसी कारण मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को धारण करने वाले तत्त्व को धर्म कहकर पुकारते हैं। निकट की वार्त्ताओं के क्रम में परमपूज्य गुरुदेव इसीलिए कहा करते थे कि “सच्चा धार्मिक एक अव्यक्त भाषा बोलता है, जिसे संसार का हर व्यक्ति समझ सकता है। 

             यह वाणी उसके अंतःकरण से भाव-संवेदनाओं के रूप में प्रस्फुटित होती है। विश्व उसका परिवार और संसार का प्रत्येक मनुष्य उसका अपना संबंधी होता है। सबका कल्याण करना ही उसकी पूजा बन जाता है। इसीलिए महात्मा गांधी हों या विनोबा, मार्टिन लूथर किंग हों अथवा कागाबा, संत फ्रांसिस हों या हजरत मुहम्मद, भगवान बुद्ध हों या आचार्य शंकर- ये सभी अपने अंतःकरण में व्याप्त करुणा तथा मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को जीने के कारण सच्चे अर्थों में धार्मिक कहे जा सकते हैं।” आज धर्म को लेकर कितनी भी बातें क्यों न होती हों, वस्तुतः धर्म का यही सच्चा स्वरूप है। 

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शाब्दिक रूप से धर्म शब्द की व्युत्पत्ति ‘धृ’ धातु से होने के कारण, धर्म शब्द का अर्थ होता है- धारण करना। जो तत्त्व सारे संसार को धारण करता है अथवा उसके द्वारा धारण करने योग्य होता है, उसे धर्म कहते हैं। अँगरेजी भाषा की दृष्टि से धर्म ‘रिलीजन’, व्यक्ति तथा समाज को बाँधने वाला माध्यम है और यही माध्यम उपासक एवं उपास्य, भक्त एवं भगवान तथा आराधक एवं आराध्य के बीच सेतु बन जाता है। सभी चिंतक विचारक, संत-दार्शनिक, तपस्वी-सुधारक, इसी कारण मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को धारण करने वाले तत्त्व को धर्म कहकर पुकारते हैं।

      निकट की वार्त्ताओं के क्रम में परमपूज्य गुरुदेव इसीलिए कहा करते थे कि “सच्चा धार्मिक एक अव्यक्त भाषा बोलता है, जिसे संसार का हर व्यक्ति समझ सकता है। यह वाणी उसके अंतःकरण से भाव-संवेदनाओं के रूप में प्रस्फुटित होती है। विश्व उसका परिवार और संसार का प्रत्येक मनुष्य उसका अपना संबंधी होता है। सबका कल्याण करना ही उसकी पूजा बन जाता है। इसीलिए महात्मा गांधी हों या विनोबा, मार्टिन लूथर किंग हों अथवा कागाबा, संत फ्रांसिस हों या हजरत मुहम्मद, भगवान बुद्ध हों या आचार्य शंकर- ये सभी अपने अंतःकरण में व्याप्त करुणा तथा मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को जीने के कारण सच्चे अर्थों में धार्मिक कहे जा सकते हैं।” आज धर्म को लेकर कितनी भी बातें क्यों न होती हों, वस्तुतः धर्म का यही सच्चा स्वरूप है।

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